दूर-दूर तक फैले हरेभरे ,
धान के खेतों के बीच खड़ा हूँ मैं,
मुझे कुछ आभास ही नहीं ,
ऐसा सुनने का अभ्यास ही नहीं
और तुम कहते हो –
मेरा एक पैर नेपाल में और दूसरा भारत में है।
कलकल करती कमला नदी में
नाव चला रहा हूँ मैं,
मुझे कुछ आभास ही नहीं
ऐसा सुनने का अभ्यास ही नहीं
और तुम कहते हो
मेरी नाव का एक सिरा नेपाल में
और दूसरा भारत में है।
मानसूनी बादलों को देख
अपनी ढोलकी पर बारहमासा गाते हुए
थाप दे रहा हूँ मैं,
तुम कहते हो अरे रे रे रूको
ढोलकी का एक कोना नेपाल में
और दूसरा भारत में हैं।
पर कोई मुझे ये तो बताओ
क्या कोई मेरी ढोलकी की ताल को
बह रही मदमस्त बयार को बाँट सकता है,
सदियों के दो मित्र भारत और नेपाल के
जंगलों पहाड़ों नदियों को
बाँटा जा सकता है मैदानों में
पर इनके आपसी विश्वास और सौहार्द को,
बहुत मुश्किल है बाँटना,
उतना ही मुश्किल है भारत और नेपाल की
मैत्री सुगंध को बाँधना,
हिमगिरि के उत्तुंग शिखरों के साये में
जहाँ बहती अनेक नदियों की धारा
आओ हम फिर मिलकर गाएँ
*मिले सुर मेरा तुम्हारा
तो सुर बने हमारा*
— लक्ष्मण नेवटिया, बिराटनगर